अल्मा इकबाल की शायरी
- प्रेम और विरह की दिलकश दास्तानें - जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनकी अनमोल सोच - प्रेरणा और आत्ममंथन की लहरें
          
              मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, 
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा। 
            
              मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं, 
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन। 
            
              राज़-ए-हयात पूछ ले ख़िज़्र-ए-ख़जिस्ता गाम से, 
ज़िंदा हर एक चीज़ है कोशिश-ए-ना-तमाम से। 
            
              'इक़बाल' लखनऊ से न दिल्ली से है ग़रज़, 
हम तो असीर हैं ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-कमाल के। 
            
              नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शुनीदन दास्ताँ मेरी, 
ख़मोशी गुफ़्तुगू है बे-ज़बानी है ज़बाँ मेरी।  
            
              मय-ख़ाना-ए-यूरोप के दस्तूर निराले हैं ,
लाते हैं सुरूर अव्वल देते हैं शराब आख़िर । 
            
              जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो। 
फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर, 
मर्द-ए-नादाँ पर कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे-असर। 
            
              कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है।
तुर्कों का जिस ने दामन हीरों से भर दिया था, 
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।  
            
              तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू, 
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर। 
है देखने की चीज़ इसे बार बार देख।  
            
              उट्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो, 
काख़-ए-उमारा के दर-ओ-दीवार हिला दो। 
            
              ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़, 
इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़ ।
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।  
            
              खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए।
मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी, 
जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे। 
            
              नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त, 
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना।
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है। 
            
              रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल ,
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर।
            
              दौड़ पीछे की तरफ़ ऐ गर्दिश-ए-अय्याम तू ।
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए, 
क़तरे जो थे मिरे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के। 
            
इश्क़ बेचारा न ज़ाहिद है न मुल्ला न हकीम।
              महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं,
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में। 
            
              वो निकले मेरे ज़ुल्मत-ख़ाना-ए-दिल के मकीनों में ।
फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं, 
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं। 
            
              महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी ।
ज़ाहिर की आँख से न तमाशा करे कोई, 
हो देखना तो दीदा-ए-दिल वा करे कोई ।
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही। 
            
              हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले, 
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले।
            
              कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है, 
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है ।
            
              मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में।
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़, 
अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद।
            
              तिरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में। 
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम, 
सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा ।
            
              ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है।
तिरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया, 
            
              यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी।
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो, 
            
              तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो ।
            
              सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर, 
मुझ को न ऐसे प्यार से देखा करे कोई। 
            
              ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़। 
इल्म में भी सुरूर है लेकिन, 
ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं।
            
              अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी, 
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन। 
            
              ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, 
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ।
            
              सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना , 
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है, 
            
              गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख, 
जन्नत की ज़िंदगी है जिस की फ़ज़ा में जीना, 
            
          कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को, 
मीर-ए-अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से, 
        
    जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में, 
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं, 
  
    जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही, 
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया, 
  
    वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है, 
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी, 
  
    जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी, 
हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी ,
  
